रायपुर। न्याय की देवी ने खोली ‘आँख’ : अब कानून अंधा नहीं रहा. कई बार बात होती है कि अंधा कानून है, क्योंकि अब तक न्याय की देवी की आंखों पर काली पट्टी बंधी होती थी. पट्टी बांधने का अर्थ यह होता है कि न्याय में कोई असमानता नहीं है. वह सबको समान रूप से देखती है.इस पर एक फिल्म भी आई थी ‘अंधा कानून’. पट्टी बंधी है.
न्याय की देवी ने खोली ‘आँख’ : कहाँ लगी है ये मूर्ति ये भी जान लें
सुप्रीम कोर्ट में देवी न्याय की देवी की नई मूर्ति लगाई गई है. सुप्रीम कोर्ट में जजों के पुस्तकालय में ये मूर्ति लगाई गई है. इस मूर्ति में कुछ बदलाव भी किए गए है. अब न्याय की देवी के एक हाथ में तराजू और दूसरे हाथ में पुस्तक है
जो संविधान जैसी दिखती है। इसके अलावा एक और बड़ा बदलाव हुआ है दशहरे की छुट्टियों में सुप्रीम कोर्ट के सामने तिलक मार्ग पर एक बड़ी वीडियो वॉल लग गई है, जिसमें हर समय सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस क्लॉक चलती है
जिससे सुप्रीम कोर्ट में मुकदमों की रियल टाइम जानकारी जानी जा सकती है। इस मूर्ति में न्याय की देवी की आंखों से पट्टी को हटा दिया गया है. साथ ही उनके हाथ में अब तलवार की जगह संविधान की किताब दी गई है. ये बदलाव भारत
के चीफ जस्टिस यानी सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने किए हैं. चंद्रचूड़ साहब अब रिटायर होने वाले हैं. नवंबर में संजीव खन्ना नए चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बनने वाले हैं. पर, उन्होंने ने खुद के सेवानिवृत होने से पहले यह बदलाव किए हैं.
इस बदलाव का मकसद ये बताना है कि भारत का कानून अंधा नहीं है. नई मूर्ति सुप्रीम कोर्ट के जजों की लाइब्रेरी में लगाई गई है. सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने खुद इस मूर्ति को बनाने का आदेश दिया था. इस मूर्ति में दिखाया गया अंधा
कानून और सजा के प्रतीक आज के समय के हिसाब से नहीं थे. इसीलिए ये बदलाव किए गए. ऐसे में सवाल ये उठता है कि भारत का कानून अंधा क्यों कहा जाता है? और पहले न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी क्यों लगाई गई थी?
कहाँ से आया न्याय की देवी वाला कांसेप्ट
न्याय की देवी का कॉन्सेप्ट रोमन सभ्यता से आया था. इस देवी का नाम ‘जस्टिसिया’ है और इसी से जस्टिस शब्द भी निकला है. लेडी ऑफ जस्टिस का ये स्वरूप भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक काल से आया था. आजादी के बाद भी
भारत की शासन व्यवस्था और सरकारी काम-काज में ब्रिटिश छाप बाकी रही और इसका असर न्यायालय और न्याय व्यवस्था पर भी पड़ा. भारतीय न्यायालयों में न्याय के प्रतीक के तौर पर लेडी ऑफ जस्टिस की मौजूदगी उसी समय से
है. भारतीय मिथकों और पौराणिक संदर्भों की बात करें तो इसमें भी धर्म के साथ-साथ न्याय को सबसे बड़ा माना गया है. पौराणिक कथाओं में न्याय के देवी-देवता और इसके कई प्रतीकों का न सिर्फ जिक्र हुआ है, बल्कि ये सभी एक
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किरदार की तरह पुराणों में शामिल रहे हैं. पुराणों में शनिदेव, यमराज और काल भैरव जैसे देव हैं जो न्याय के देवता कहे जाते हैं.
न्याय की देवी का जानें इतिहास
आंखों पर पट्टी पहली बार 16वीं शताब्दी में लेडी जस्टिस की मूर्ति पर दिखाई दी थी और तब से इसका इस्तेमाल होता रहा है. इसका मूल महत्व यह था कि न्यायिक व्यवस्था कानून के पहलुओं के दुरुपयोग या अज्ञानता को सहन कर रही
थी. हालांकि, आधुनिक समय में आंखों पर पट्टी कानून की निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता का प्रतिनिधित्व करती है. यह राजनीति, धन या शोहरत जैसे बाहरी वजहों को अपने निर्णयों को प्रभावित नहीं करने देती है. एक रिपोर्ट्स के अनुसार
17वीं शताब्दी में एक अंग्रेज अफसर पहली बार इस मूर्ति को भारत लाए थे. यह अफसर एक न्यायालय अधिकारी थे। 18वीं शताब्दी में ब्रिटिश राज के दौरान न्याय की देवी की मूर्ति का सार्वजनिक रूप से इस्तेमाल होने लगा.
न्याय की देवी देती हैं कौन -कौन से सन्देश
इस मूर्ति में संतुलन तराजू निष्पक्षता और कानून के दायित्व को दर्शाते हैं कि अदालत में प्रस्तुत साक्ष्य को तौलना चाहिए. कानूनी मामले के प्रत्येक पक्ष को देखा जाना चाहिए और न्याय करते समय तुलना की जानी चाहिए.
तलवार कानून प्रवर्तन और सम्मान का प्रतीक है और इसका अर्थ है कि न्याय अपने निर्णय और फैसले पर कायम है और कार्रवाई करने में सक्षम है. तलवार खुली हुई है और यह इस बात का संकेत है कि न्याय पारदर्शी है और डर का
साधन नहीं है. दोधारी तलवार यह दर्शाती है कि न्याय सबूतों के अध्ययन के बाद किसी भी पक्ष के खिलाफ फैसला सुना सकता है और यह फैसले को लागू करने के साथ-साथ निर्दोष पक्ष की रक्षा या बचाव करने के लिए बाध्य है.
कहां – कहां मिलती हैं न्याय की देवी की प्रतिमाएं
न्याय की देवी की प्रतिमा अलग-अलग रूप में दुनिया भर में पाई जाती हैं. मशहूर कनाडाई वास्तुकला कंपनी हीदर एंड लिटिल के अनुसार, ये कलाकृतियां पेंटिंग, मूर्तिकला, हथियारों के कोट या धातु की मूर्तियों के रूप में दुनिया भर में
दिखती हैं. उत्तरी या दक्षिणी अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, मध्य पूर्व, दक्षिणी और पूर्वी एशिया और ऑस्ट्रेलिया में न्यायालयों, कानूनी कार्यालयों और कानूनी और शैक्षणिक संस्थानों में न्याय की देवी की मूर्ति देखने को मिलती है.
हीदर एंड लिटिल के मुताबिक, इस प्रतिमा का इतिहास कई हजार साल पुराना है और वह आमतौर पर न्याय के प्रतीक होती है. न्याय की देवी की अवधारणा बहुत पुरानी है, जो प्राचीन ग्रीक और मिस्र के समय से चली आ रही है.
ग्रीक देवी ‘थीमिस’ कानून, व्यवस्था और न्याय का प्रतिनिधित्व करती थीं, जबकि मिस्र में यह बात थीं, जो व्यवस्था का प्रतीक थीं और तलवार और सत्य का पंख दोनों रखती थीं। हालांकि, इन मूर्तियों की तुलना न्याय की रोमन देवी
‘जस्टिसिया’ से की जाती है. न्याय की महिला जैसी कुछ पहली मूर्तियां मिस्र की देवी मात से मिलती-जुलती हैं, जो उस प्राचीन समाज में सत्य और व्यवस्था का प्रतीक थीं. बाद में प्राचीन यूनानियों ने देवी थेमिस यानी ईश्वरीय कानून और
रीति-रिवाज का प्रतीक और उनकी बेटी डाइक की पूजा की. थेमिस ईश्वरीय कानून और रीति-रिवाज का प्रतीक थीं तो डाइक के नाम का अर्थ है न्याय. डाइक को हमेशा तराजू की एक जोड़ी लिए हुए दिखाया जाता था और ऐसा माना जाता
था कि वह मानवीय कानून पर शासन करती थीं. प्राचीन रोम के लोग जस्टिसिया या लस्टिसिया का सम्मान करते थे, जो आधुनिक समय में बनी न्याय की देवी की मूर्तियों से सबसे अधिक मिलती जुलती है. वह न्याय व्यवस्था की नैतिकता का प्रतिनिधित्व करती थीं.
न्याय की देवी ने खोली ‘आँख’ : सुबूतों और गवाहों को देख सकेंगी
अब न्यायालय में न्याय की देवी मूर्ति की आंख से पट्टी हटा दी गई है. न्याय की मूर्ति खुली आंखों से सभी को देख सकती है या महसूस कर सकती है. न्याय सबके लिए सुलभ है. न्याय सबके लिए समान है. न्याय सबूतों को देखा है.
न्याय गवाहों को देखा है और जज इन सारी बातों पर विचार कर मौजूदा कानून व्यवस्था में जो परिवर्तन हुए हैं और प्रावधान है. उसके हिसाब से फैसला करता है. न्याय की अवधारणा यह भी है कि भले ही कई अपराधी छूट जाए पर
किसी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए. बहुत सारी अवधारणाओं के साथ हमारी न्याय व्यवस्था में है. हमारी पूरी न्याय व्यवस्था में ब्रिटिश या अंग्रेजी छाप है. अभी भी हमारे यहां बहुत सारे कानून अंग्रेजो के हैं. हालांकि काफी बदलाव भी
किए गए है. कई संशोधन किए गए हैं. पर कहते हैं कि अंग्रेज चले गए और और अपनी औलाद छोड़ गए. वह अपनी भाषा छोड़ गए. अपने संस्कार छोड़ गए. अपना रहन-सहन छोड़ गए और हमने उसे अपने जीवन का हिस्सा बना दिया.
आज बहुत सारी चीज अंग्रेजों के अवशेष के रूप में हमारे बीच में हैं. वह हमारी सभ्यता का हिस्सा बन गई है. पहले इलीट क्लास अंग्रेजी बोलना था. अब धीरे-धीरे बहुत लोअर क्लास में भी अंग्रेजी बोली जाने लगी है, क्योंकि जिस तरह से
अंग्रेजी का चलन बढ़ा है और इसे रोजगार के साथ जोड़कर देखा जाने लगा. यही वजह है कि अंग्रेजी स्कूल भी जगह-जगह खुले हैं. लोग अंग्रेजों की तरह का जीवन, खान-पान और संस्कार भी अपना लिया. छुरी-काटा के खाने लगे
अंग्रेजों की तरह पैंट-शर्ट पहनने लगे, कोट पहनने लगे, टाई बाँधने लगे, यह सब भारतीयों ने अंग्रेजों की कला सीख ली और अपना लिया. अंग्रेजी हमारे यहां रच-बस गई है. अब भारतीय पूरी दुनिया में आ-जा रहे हैं. अफ्रीका हो, कनाडा हो
लंदन हो, ब्रिटेन हो, ऑस्ट्रेलिया हो, ऐसा कोई देश नहीं है, जहां भारतीय ना हो और उनकी आवाजाही न हो. उनके लिए अंग्रेजी भाषा एक माध्यम है. अंग्रेजी की अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में पहचान है.
क्यों न्याय की देवी ने खोली ‘आँख’ : अब इसे भी समझें
हमारी पूरी कानूनी व्यवस्था और ब्यूरोक्रेसी पर भी ब्रिटिश साम्राज्य का असर दिखता है. हम लगातार देखते हैं कि किस प्रकार से अंग्रेजी हमारे देश में गहरी हो गई है. अंग्रेजों ने भले ही हम पर 100 साल राज किया, उसे पहले मुगलों ने भी
राज किया, कई राजाओं ने शासन किया, कई साम्राज्य रहे, पर अंग्रेजों का प्रभाव हम पर ज्यादा पड़ा, क्योंकि अंतिम आजादी हमें अंग्रेजों से मिली. यही वजह है कि कानून की देवी की मूर्ति में भी उसकी छाप थी. हालांकि अब बहुत सारे
कानून बदले गए हैं, सरकार ने आईपीसी में भी बदलाव किया है और भारतीय संहिता भी लगाई गई है. कई शहरों के नाम भी बदले जा रहे हैं, हालांकि वह नाम अंग्रेजों वाले नहीं बदले जा रहे हैं. मुगलों के काल के नाम ज्यादा बदले जा रहे
हैं. यह बदलाव की प्रक्रिया है. अब हम न्यायालय की कार्रवाई को भी वेबसाइट पर देख सकते हैं. उसमें भी सारे कैमरे लग गए हैं. अब लुका-छुपी जैसा कुछ नहीं है, जो कुछ जज बोल रहे हैं और वकील जिरह कर रहे हैं, वह सब ऑनलाइन
देखा जा सकता है. काफी कुछ बदलाव न्यायिक प्रक्रिया और व्यवस्था में भी आया है. यह बदलाव एक सकारात्मक स्वरूप ले रहा है. हम उम्मीद करते हैं कि न्याय की देवी की मूर्ति की आंख से पट्टी हटी है. अब न्याय अंधा नहीं है.
न्याय सबको बराबरी से देख रहा है. प्रतीक स्वरूप में ही सही जब अमेरिका जाते हैं तो वहां लिबर्टी की मूर्ति लगी है. वह अमेरिका का प्रतीक बन गई है. अलग-अलग जगह पर हम देखते हैं कि बहुत से प्रतीक हैं. इसी तरह जैसे ही हम
तराजूवाली मूर्ति देखते थे तो हमें न्याय व्यवस्था की याद आती है. अशोक चक्र हमारे देश का प्रतीक है. कई बार यह प्रतीक चिन्ह इतने बड़े हो जाते हैं कि वह मुख्य चीज से भी बड़ा स्वरूप हो जाता है और इन्ही स्वरूपों से याद किए
जाते हैं. प्रतीक हमारी संस्कृति से हमारी सभ्यता से जुड़ते हैं. यह न्याय की देवी भी किसी सभ्यता से हमारे बीच आई थे. अब उसके आँख पर से पट्टी हटी है. हम उम्मीद करते हैं कि न्यायालय की प्रक्रिया और सरल होगी.
न्यायालय में लंबित प्रकरण का भी निराकरण जल्दी-जल्दी होगा और लोगों को सुलभ, सस्ता, सहज और त्वरित न्याय मिलेगा.
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