
पूर्व न्यायाधीश जस्टिस आरएफ नरीमन ने बाबरी विवाद से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर अपनी असहमति जताते हुए कहा कि इन फैसलों में सेकुलरिज्म के सिद्धांत के तहत न्याय नहीं दिया गया। उन्होंने 2019 के ऐतिहासिक फैसले की भी आलोचना की, जिसमें विवादित स्थल पर राम मंदिर निर्माण की अनुमति दी गई थी। जस्टिस नरीमन ने इसे ‘न्याय का बड़ा मजाक’ करार दिया और कहा कि इन फैसलों में सेकुलरिज्म को उचित स्थान नहीं दिया गया। जस्टिस नरीमन ने यह टिप्पणी “सेकुलरिज्म और भारतीय संविधान” विषय पर आयोजित प्रथम जस्टिस एएम अहमदी स्मृति व्याख्यान में की। उन्होंने बताया कि ‘खुद सुप्रीम कोर्ट ने ये बात मानी थी कि बाबरी मस्जिद के नीचे कोई राम मंदिर नहीं था।’ उन्होंने इस मामले से जुड़े पहले के फैसलों पर खुलकर बात की।
लिब्रहान आयोग और राष्ट्रपति संदर्भ पर टिप्पणी
लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस नरीमन ने कहा, “”सबसे पहले सरकार ने लिब्रहान आयोग नियुक्त किया, जो निश्चित रूप से 17 वर्षों तक सोया रहा और फिर 2009 में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की। दूसरा, इसने अयोध्या अधिग्रहण क्षेत्र अधिनियम और साथ ही सुप्रीम कोर्ट को राष्ट्रपति संदर्भ दिया, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि मस्जिद के नीचे कोई हिंदू मंदिर था या नहीं।” उन्होंने इसे “भ्रामक और शरारतपूर्ण प्रयास” बताया।