रायपुर। गड़बड़ियों का गढ़ बना CGMSC : छत्तीसगढ़ मेडिकल कार्पोरेशन को संक्षेप में CGMSC कहा जाता है। इसका जन्म डॉ रमन सिंह के कार्यकाल में हुआ था। इसका उद्देश्य स्वास्थ्य विभाग को घपलों -घोटालों से मुक्त करना था
मगर अब यही विभाग घपलों -घोटालों का घर बन चुका है। सबसे आश्चर्यजनक बात ये है कि इस विभाग में एक भी कर्मचारी रेग्युलर नहीं है। कुछ संविदा तो कुछ आउटसोर्स किये गए कर्मचारी इसे चला रहे हैं। प्रदेश के 2 करोड़ गरीब लोग ऐसे हैं
जिनको अपने इलाज़ के लिए सरकारी अस्पतालों पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे तमाम लोगों की जान इसी आउटसोर्सिंग के भरोसे है। करोड़ों की दवाओं से लेकर मशीनों तक की
खरीदी की फाइलें भी यही लोग निपटाते हैं। तीन की चीज के तेरह खर्च करने के बाद भी मरम्मत के नाम पर भी मोटी रकम उड़ाई जाती है। सब जान कर भी स्वास्थ्य विभाग के जिम्मेदार आँखों पर पट्टी बांधे तमाशा देख रहे हैं।
गड़बड़ियों का गढ़ बना CGMSC : कैसे हुआ इसका गठन
दरअसल जब राज्य में डॉ रमन सरकार की पहली पारी शुरू हुई तो उस वक्त स्वास्थ्य विभाग के घोटाले चरम पर थे। इस विभाग में सीबीआई के लगातार छापे पड़ रहे थे। हेल्थ डायरेक्टर और दो ज्वाइंट डायरेक्टर को अरेस्ट कर जेल भेजा गया।
ऐसे में, उस वक्त के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल ने प्रयास करके सीजीएमससी का गठन करवाया, ताकि दवाइयों और उपकरणों की खरीदी स्वास्थ्य विभाग के आलसी अफसरों की बजाए कारपोरेशन करे।
उसके बाद ये दवा खरीदी कारपोरेशन भ्रष्टाचार कारपोरेशन में तब्दील हो गया । ऐसा इसलिए हुआ कि 14 साल में इस निगम में एक भी रेगुलर स्टाफ की भर्ती नहीं हो पाई। इसके आलावा कुछ चुनिंदा अफसरों ने इसे दवा सप्लायरों का सुरक्षित चारागाह बना दिया।
आईएफएस एमडी को लेकर बवाल
उस वक्त के मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह की सरकार में जब सीजीएमसी का गठन हुआ, उस वक्त आईएफएस प्रताप सिंह को इसका प्रबंध निदेशक बनाया गया। आईएफएस को एमडी बनाने को लेकर इसका बड़ा विरोध भी हुआ।
लोगों ने तो ये भी सवाल उठाया था कि एक जंगल अधिकारी के हाथों सरकार ने लोगों की जान सौंप दी, तो वहीं प्रताप सिंह ऑनेस्ट और निर्विवाद अफसर थे शायद इसीलिये सरकार ने किसी उन्हें चुनकर इस निगम की जिम्मेदारी सौंपी थी।
एमडी प्रताप सिंह ने इसका काम सही दिशा में बढ़ाया भी मगर बाद में आए अधिकांश प्रबंध निदेशकों में से कुछ पैसे के मोह में तो कुछ अज्ञानतावश घोटाले पर घोटाले कर सीजीएमसी को भ्रष्ट अधिकारियों का मोहरा बना डाला ।
सवाल 2 करोड़ लोगों की जान का
प्रदेश की 2.40 करोड़ की आबादी में से मोटे तौर पर दो करोड़ से ज्यादा लोग सरकारी अस्पतालों के भरोसे रहते हैं । देश के 28 राज्यों में सरकारी अस्पतालों पर निर्भरता वाले राज्यों में छत्तीसगढ़ टॉप फाइव में शुमार है । छत्तीसगढ़ में मात्र 40 लाख से भी कम लोग प्रायवेट अस्पतालों और महंगे नर्सिंग होम्स में इलाज कराने जाते हैं।
कोई भी रेग्युलर कर्मचारी नहीं
सीजीएमसी में प्रताप सिंह के बाद आईएएस को एमडी बनाया जाने लगा। एमडी के अतिरिक्त दस से भी अधिक प्रतिनियुक्ति पर आए अधिकारी होंगे। तो वहीं 65 संविदा कर्मचारी, अधिकारी। इसे छोड़कर भी तकरीबन छह सौ अधिकारी, कर्मचारी आउटसोर्सिंग वाले हैं। यानि उन्हें किराए पर लिया गया है।
किराए के अधिकारी और करोड़ों की डील
सीजीएमएससी में वित्तीय अनियमितताओं का ये आलम है कि किराए के कर्मचारी करोड़ों रुपए के दवाओं और उपकरणों की फाइलें डील कर रहे हैं। उन्हें कोई देखने वाला है नहीं।
निगम का अपना कोई अधिकारी, कर्मचारी हो तो उसकी एकाउंटबिलिटी होगी। प्रतिनियुक्ति पर आए अधिकारियों को सीजीएमएससी के प्रति क्या जवाबदेही होगी। वे लूटेंगे और चल देंगे…जैसा इस समय चल रहा है। आखिर, करोड़ों के घोटालों का पर्दाफाश यूं ही थोड़े हो रहा है।
कहां -कहां होता है बड़ा खेला जान लें
सीजीएमससी से जुडे जानकारों का तो ये भी कहना है कि पहले दवा खरीदी में खेला कम होता था, मगर अब दुर्भाग्यजनक स्थिति यह है कि अमानक दवाइयां भी खरीदी जाने लगी हैं। वैसे सरकारी धन का सबसे अधिक वारा-न्यारा उपकरण और रिएजेंट खरीदी में किया जाता है।
इसमें अरबों का खेला होता है। मेडिकल उपकरणों में छोटी से लेकर बड़ी-बड़ी कंपनियां शामिल हैं। असली से लेकर फर्जी तक। सीजीएमएससी के भ्रष्ट अधिकारी उपकरणों के टेंडर में खेला कर देते हैं। कई अज्ञानी एमडी को समझ में नहीं आता कि टेंंडर में नीचे वाला खेला कर दिया है, और उसे हरी झंडी मिल जाती है।
दरअसल, उपकरणों का टेंडर ही ऐसा किया जाता है कि जिस कंपनी को उपकृत करना हो, वही इसमें पार्टिसिपेट कर सके। बाकी किनारे हो जाए।
किराए के अफसरों का कारनामा
अब अगर पिछले एक दशक की खरीदी की यदि सीबीआई या ईओडब्लू जांच करा दी जाए तो कई एमडी से लेकर जीएम और अफसर सलाखों के पीछे चले जाएंगे। आलम ये है कि चार-पांच करोड़ की सिटी स्केन 11 करोड़ में खरीदी जा रही हैं।
उसमें भी कंपनियां वारंटी की शर्तें तक नहीं लिखवाती। बाद में खराब होने पर लाखों रुपए ऐंठकर उसकी मरम्मत की जाती है। रिएजेंट में अफसरों ने सौ गुना रेट पर खरीदी कर ली।
वो भी तब, जब उसकी कोई जरूरत ही नहीं थी, सिर्फ सरकारी पैसा डकारने के लिए। ऐसे में, सरकारी अस्पतालों और दो करोड़ गरीब लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा तो भगवान् ही करें ।
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