Social Issue :-“धर्म और समाज का अंतर संबंध” विषय पर परिचर्चा

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रायपुर। भारत विविधताओं का देश है जहां विभिन्न धर्म और जाति के लोग रहते हैं इस देश की खूबसूरती यह भी है कि यहां अलग-अलग धर्म और समाज के लोग अपने तरीके से तीज त्यौहार मनाते हैं लेकिन मौजूदा दौर में कई बदलाव भी देखने को मिल रहा है। मानव सभ्यता में धर्म का अस्तित्व सबसे स्थायी सामाजिक घटनाओं में से एक है जो समाजशास्त्रीय विश्लेषण को प्रेरित करता है, यह दैनिक सामाजिक जीवन के ताने-बाने से जुड़ा हुआ है। धर्म समाज में स्थिरता लाने वाला प्रभाव डालता है, फिर भी इसका इस्तेमाल नफरत फैलाने और मानवता के खिलाफ अपराध करने के लिए भी किया जाता है। एशियन न्यूज के प्रधान संपादक सुभाष मिश्रा ने कहा कि एशियन न्यूज के खास कार्यक्रम संतुलन का समीकरण में “धर्म और समाज का अंतर संबंध” विषय पर परिचर्चा का आयोजन किया गया। जिसमें यह जानने का प्रयास किया गया कि इस दौर में धर्म और समाज के बीच क्या अंतर संबंध हैं इस विषय पर बात रखने के लिए देश भर के नामचीन हस्तियां शामिल हुए। जिसमें कथाकार भालचन्द्र जोशी, दिल्ली, कथाकार आनंद हर्षल, रायपुर, आलोचक जयशंकर नागपुर, आलोचक जयप्रकाश, दुर्ग और वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार सोनी, डॉ योगेंद्र चौबे शामिल हुए और प्रमुखता से अपनी बात रखे।

 

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आलोचक जयप्रकाश ने कहा कि सनातन एक शब्द के रूप में जिस तरीके से इस्तेमाल किया जा रहा है मुझे लगता है कि सनातन का जो मूल संदर्भ है उससे अलग करके एक राजनीतिक विचार के अनुकूल बनाकर उसे पेश किया जा रहा है दूसरी बात यह है कि हिंदू चेतना और सनातन चेतना दोनों को एक मानकर तमाम बातें कही जा रही है अगर हम इसकी बुनियाद में जाते हैं तो मैं समझता हूं कि धर्म और समाज के बीच जो रिश्ता बनता है उसे रिश्ते के ही बुनियाद में हमको जाना पड़ेगा और इसको समझने के लिए जो सभ्यता के मानवीय चेतना रही है उसके विकास को जो समझ लें तो सनातन के मूल अर्थ है उसको समझ सकेंगे।

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आनंद हर्षुल ने कहा कि मैं यह समझता हूं कि धर्म को समाज के अंदर इस तरह से उपस्थित होना चाहिए कि जैसे कि वह आदिवासियों के समाज में उपस्थित है आदिवासियों का धर्म इस तरीके से आता है कि उससे पहले प्रकृति आती है तो हमारे यहां भी धर्म का समाज में ऐसा ही उपस्थित होना चाहिए कि वह सभी के लिए सामान्य हो किसी के लिए दुर्भावना या किसी के लिए तिरस्कार ना रहे।  तब जाकर समाज में शांति अमन चैन कायम होगा और लोग आपस में एक दूसरे के सहयोग भी करेंगे।
समाजसेवी सोम गोस्वामी ने कहा कि भारत का समाज हो या दुनिया का कोई भी समाज धर्म समाज को संचालित और नियंत्रित करता हो। आज उसकी स्थिति वैसी नहीं है आज राजनीति धर्म और समाज को संचालित और नियंत्रित करता है। लेकिन आज जो धर्म का स्वरूप है वह बिल्कुल बदल चुका है समाज का जैसे-जैसे विकास होता है सारे मूल्य सारे आदर्श और सारी मान्यताएं बदलता है आज जिस तरीके से राजनीतिक लोग धर्म की बात करते हैं वह सिर्फ अपनी राजनीतिक लाभ के लिए करते हैं

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मानवीय तत्वों और मूल्यों को बचाना है जरूरी
कथाकार एवं आलोचक जयशंकर ने कहा कि मैं यह सोचता हूं कि धर्म और समाज बदलते हुए संदर्भ में पुनर परिभाषा की मांग करते हैं क्योंकि यह दोनों ही शब्द पिछले 20 से 25 वर्षों की राजनीतिक में यह दोनों ही शब्द अपनी मूल शब्द से भटकाव में गए हैं और आज से 20 वर्ष पहले जो इन दोनों शब्दों का समाज में जगह थी उसमें बदलाव आए हैं। वहीं इन दोनों ही विषयों पर उन लोगों ने ज्यादा बोलना सोचना समझना शुरू किया है जो इन दोनों ही चीजों को कम जानते हैं और यह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है। कम से कम भारतीय समाज के परंपरा में यह बात बहुत ही विचलित करने वाली है कि जिन चीजों को बचाया जाना चाहिए था जिन मानवीय तत्वों और जिन मानवीय मूल्यों को बचाना जाना चाहिए था उनको बचाने वाले ज्यादातर ऐसे लोग हैं जो इस समाज को और धर्म को बहुत अच्छे तरीके से नहीं जानते हैं।

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धर्म को हटियार और उपकरण की तौर पर हो रहा इस्तेमाल
भालचंद्र जोशी ने कहा कि समाज में बदलाव की प्रक्रिया बहुत पहले से शुरू हो गई थी उन्होंने तुलसी दास का जिक्र करते हुए कहा कि रामचरित्र मानस के जनक तुलसीदास को रामचरित्र मानस लिखने की  जरूरत क्यों पड़ी, क्योंकि उन्हें लगा कि इस समय सबसे ज्यादा बुरी हालत में है। उस समय मुगलों, सत्ता और शासन का दमन था। लोग इतना ज्यादा एक दूसरे पर विश्वास नहीं  करते थे तब तुलसी को लगा कि लोगों को एक चीज बचा सकती है वह है धर्म क्योंकि धर्म पहले से मौजूद था लेकिन उन्होंने एक तरीके से फिर से पुनर्स्थापना की। उन्होंने रामायण को फिर से लिखा। उसका इस तरह से पुनर्लेखन किया की राम चंद्र जी को मर्यादा पुरुषोत्तम जैसा उनका स्वरूप गढ़ा। उन्होंने रामचरित्र मानस में धर्म का इतना ज्यादा विस्तार दिया कि लोगों को लगा की धर्म को छोड़कर गलती कर रहे हैं। और फिर से लोग धर्म की ओर मुड़े। लेकिन आज हम देख रहे हैं कि धर्म को हथियार और उपकरण की तरह सत्ता इस्तेमाल कर रही है चाहे सत्ता किसी की भी हो सभी ने अपने तरीके से धर्म का इस्तेमाल किया है। क्योंकि सत्ता को लगता है कि जनमानस को प्रभावित करने के लिए धर्म से बड़ा माध्यम या जरिया नहीं है।

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धर्म और सांप्रदायिकता के बीच अंतर का समझना होगा
रामकुमार तिवारी ने कहा कि जैसा की जयशंकर ने कहा 5 हजार वर्षों से धर्म और समाज का रूप लिया है तो हमको सबसे पहले देखना पड़ेगा कि हमारे यहां जो धर्म का स्वरूप रहा है वह अन्य देश से भिन्न रहा है क्योंकि उसने एक ऐसे समावेशी संस्कृति का जन्म दिया था जिसमें हम इतने विविधताओं को इतने सदियों तक जी सके। इसके लिए लंबा समय लगा होगा ये कोई हवा में तो हो नहीं गया। बाद में तो हम सांप्रदायिक और धर्म दोनों को पर्याय समझने लगे। लेकिन धार्मिक व्यक्ति होना और सांप्रदायिक व्यक्ति होने में बहुत बड़ा फर्क है इसे सभी को समझना होगा। तभी जाकर देश में फिर से अमन और खुशहाली का वातावरण बन पाएगा।

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